महाक्रान्ति की इस नायिका के नसीब में श्रद्धा के दो फूल भी नहीं

काठमांडू में उपेक्षित है बेगम हज़रत महल की मजार

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देशभक्ति से सराबोर कविता ‘शहीदों की मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा‘ की ये पंक्तियां आज भी देश में प्रसिद्ध हैं। लेकिन इन पंक्तियों के लेखक को शायद तनिक भी आभास नहीं रहा होगा कि वतन पर मर मिटने वाले सभी शहीदों की किस्मत एक जैसी नहीं होती।

इतिहास गवाह है कि भारत की आज़ादी में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ वीर पुरुषों के साथ अनेक महिला क्रांतिकारियों ने भी कंधे से कंधा मिलाकर अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। किन्तु आजादी के बाद जिम्मेदारों ने घरों की दहलीज से निकल कर कम्पनी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ लड़ाई लड़ने वाली इन जांबाज वीरांगनाओं की उपेक्षा की और उन्हें पूरी तरह भुला दिया। ऐसे ही अवध की मलिका बेगम हज़रत महल ने 1857 के महासंग्राम में अपना सब कुछ लुटाकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और वीरता और कुशल नेतृत्व से अंग्रेजों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिए। ऐशो आराम की जिन्दगी की अभ्यस्त अवध की यह बेगम अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए स्वयं युद्ध के मैदान में उतरी और वतन की मिट्टी के लिए सब कुछ कुर्बान कर दिया। लेकिन अफसोस है कि उनकी मौत के बाद नेपाल के काठमांडू में उनकी मजार पर मेले लगना तो दूर आज श्रद्धा के चंद फूल चढ़ाने वाला भी कोई नहीं है।

मोहम्मदी खानम से बेगम हज़रत महल-

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अवध की बेगम कही जाने वाली हज़रत महल ने 1820 में उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में गरीब परिवार में जन्म लिया था। उनके पिता जमींदार के यहां गुलाम थे, लिहाजा उनके घर के स्थिति ठीक नहीं थी, जिससे उन्हें जीवन में कई बड़े उतार-चढ़ाव देखने को मिले। बचपन में उनका का नाम मोहम्मदी खानम था। उनके माता-पिता ने उन्हें बेच दिया तो उन्हें लखनऊ के शाही हरम में बांदी के तौर पर शामिल किया गया। चूंकि वह बहुत ही सुन्दर और हुनरमंद थी, इसलिए उन्होंने जल्द ही शाही हरम में अपनी एक खास पहचान बना ली। जब नवाब वाजिद अली शाह की नज़र उन पर पड़ी, तो उन्होंने अपने शाही हरम के परी समूह (नवाब की पसंदीदा महिलाओं के समूह को परी समूह कहा जाता था) में शामिल कर दिया। नवाब उन्हें महक परी कहते थे। बेगम कविताएं लिखती थी और नवाब को कविताओं का शौक था। कुछ समय तक तो वाजिद अली शाह बेगम हजरत महल के प्रेम में आकंठ डूबे रहे। हालांकि जल्द ही राजा का बेगम से जी भर गया। लेकिन 1845 में जब उन्हें पता चला कि महक परी गर्भवती हैं तो उन्होंने तुरंत बेगम को पर्दे में रख दिया और उन्हें इफ्तिखार-उन-निसा (सभी महिलाओं का गौरव) सम्मान सेनवाजा। बाद में वाजिद अली शाह ने उन्हें अपनी बेगम बना लिया और जब बेगम ने 20 अगस्त 1845 को अवध के वारिस मिर्जा मोहम्मद रमजान अली को जन्म दिया तो नवाब ने उन्हें बेगम हज़रत महल का नाम दे दिया। वाजिद अली शाह के पिता बादशाह अमजद अली ने मिर्जा मोहम्मद रमजान अली को बिरजिस कद्र नाम दिया था।

हज़रत महल ने चिनहट की लड़ाई में विद्रोही सेना की शानदार जीत के बाद 05 जून 1857 को 21 तोपों की सलामी के साथ अपने 11 वर्षीय बेटे बिरजिस क़द्र की ताजपोशी उसके पिता द्वारा बनाए महल कैसरबाग के बरदारी में की। अंग्रेज़ों को लखनऊ रेजीडेंसी में शरण लेने के लिए विवश होना पड़ा। बिरजिस क़द्र के प्रतिनिधि के तौर पर हज़रत महल का फ़रमान पूरे अवध में चलता था।

महासंग्राम में दिखाया रण कौशल-

बेटे की ताजपोशी के बाद हज़रत महल ने 1857 की क्रांति में अपनी साहस और बहादुरी का परिचय देते हुए सबसे पहले सेना का गठन किया, फिर अपने सहयोगियों की मदद से ब्रिटिश सेना से युद्ध किया और लखनऊ को अपने अधीन कर लिया। उन्होंने अवध राज्य के अन्य राजाओं और नागरिकों को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया। बेगम हज़रत महल हिन्दू मुस्लिम में भेदभाव नहीं करती थीं। उन्होंने सभी धर्मों के सैनिकों को समान अधिकार दिया था। कहा जाता है कि बेगम हज़रत महल के करिश्माई नेतृत्व के कारण अवध के राजा, किसान और सैनिक सभी उनके नेतृत्व में अंग्रेजों से लड़ने के लिए तैयार हो गए। बेगम अपनी सेनाओं का मनोबल बढ़ाने के लिए मैदान में भी अपने सिपाहियों का नेतृत्व करतीं और अपनी तलवार से अंग्रेजों से दो-दो हाथ करती थीं।

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