क्या गैंगरेप की घटनाओं को भी राजनैतिक, सांप्रदायिक रंग देना जरूरी है ?

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—-( श्वेता सिंह )

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जम्मू का बहुचर्चित कठुआ काण्ड अखबारों और चैनलों की सुर्खियां बना हुआ है। आठ साल की बच्ची के साथ गैंगरेप के बाद क्रूरतम तरीके से उसे मौत के घात उतार दिया गया। 10 जनवरी को हुयी इस घटना के तीन माह बाद क्राइम ब्रांच की चार्जशीट ने लोगों को झकझोर कर रख दिया। 

घाटी की इस घटना में बच्ची को इन्साफ दिलाने के लिए सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक हर तबके के लोग शामिल हुए। कहा जाता है कि भारत एक सांप्रदायिक देश है ; लेकिन भारतवासी इसको लेकर इतने ज्यादा गंभीर हैं कि उन्हें इस तरह की घिनौनी घटनाओं में भी मौका मिल जाता है। कठुआ काण्ड की चार्जशीट आई नहीं कि बस फिर क्या था ; लोगों ने राजनीती की चिंगारी को हवा देते हुए बच्ची की लाश पर साम्प्रदायिकता का कफ़न चढाने की कोशिश जारी कर दी। 

इसी दरमियान उत्तर प्रदेश के उन्नाव से भी एक घटना सामने आ गयी ; जिसमे सबसे बड़ा राजनीतिक खेल तो तब सामने आया , जब सोशल मीडिया पर बेटी बचाओ , बेटी पढ़ाओ का भाजपाईयों का नारा उन्ही के खिलाफ चलाया जाने लगा और इलाहाबाद में महिलाओं और बच्चियों का हवाला देते हुए पोस्टर – बैनर के माध्यम से बीजेपी कार्यकर्ताओं को मोहल्ले में आने से मना कर दिया गया। अब आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि आजकल की पतन की ओर अग्रसर राजनीति में ये रणनीति किन लोगों ने किस हित को साधने के लिए चली होगी। इतना ही नहीं ; खुद आरोपी पक्ष ही स्वयं को सही साबित करने के लिए नार्को टेस्ट की मांग करने लगा।  अब इतना तो सब जानते हैं कि केंद्र और यूपी में किसका राज़ है ?खैर जनता खुद भी बहुत समझदार है। 

भारत की 2018  की  कठुआ जैसी बड़ी गैंगरेप की वारदात में राजनीतिक तो नहीं लेकिन सांप्रदायिक हित जरूर साधे जाने लगे। कोर्ट में केस जाने से पहले ही सड़कों पर अदालतें सज गयीं और लोग खुद को वकील समझकर अपनी – अपनी दलीलें पेश करने लगे। इसी बीच दरिंदगी की घटना की यह बहस साम्प्रदायिकता की तरफ मुड़ने लगी और देखते ही देखते सोशल मीडिया पर धार्मिक भावनाएं भड़काने वाली तस्वीरें वायरल होने लगीं। कहीं त्रिशूल पर कंडोम चढ़ाये जाने की तस्वीरें , तो कहीं तिलकधारी द्वारा लड़की से बलात्कार की कोशिश वाली तस्वीर वायरल की जाने लगी। इस प्रकार बलात्कार की शर्मनाक घटनाओं का पूरा ठीकरा सुनियोजित तरीके से समूचे हिन्दू समुदाय पर फोड़ दिया गया। उन आठ आरोपियों की धार्मिक पहचान के जरिये समूची हिन्दू कौम को सोशल मीडिया पर निशाना बना दिया गया। अब एक नजर घुमाते हैं इन दोनों ही घटनाओं के बाद हाल ही में त्रिपुरा की उस घटना पर ; जहाँ ट्यूशन के लिए निकली नाबालिग बच्ची का 5 लोगों ने अपहरण करके गैंगरेप किया। आरोपियों के नामों से तो यही स्पष्ट होता है कि वो मुस्लिम सम्प्रदाय से समबन्ध रखते हैं। तो अब क्या यह समझा जाए कि अभी तक जिस कौम पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया जा रहा था तो क्या अब उस कौम को भी जवाब देने का मौका मिल गया है।

इन सभी घटनाओं के बाद अचानक से याद आ गया एक साल पुराना जुलाई , 2017का वो दिन ;जब बशीरहाटल निवासी एक नाबालिग लड़के द्वारा पैगम्बर मोहम्मद साहब पर आपत्तिजनक टिप्पणी के विरोध में कई जगहों पर दो सम्प्रदाय आमने – सामने आ गए। नतीजा यह निकला कि चारों तरफ दंगों की चिंगारी सुलग उठी और देखते ही देखते इस चिंगारी में सैकड़ों घर जल गए और करोङों की सम्पत्ति ख़ाक हो गयी। इसी तरह दिसम्बर 2015 में भी हिन्दू महासभा के नेता कमलेश तिवारी पर पैगम्बर साहब के अपमान के चलते कानूनी तलवार लटक गयी और उन पर आरोप निश्चित हो गए। हलाकि कमलेश तिवारी का वो अपमानजनक ब्यान कुछ दिनों तक सोशल मीडिया पर सर्कुलेट होता रहा था ,जिसके बाद मुस्लिम धर्मगुरुओं का ध्यान इस ओर गया था और फिर शुरू हो गया था वही सब ; जिसे संभालने में कानून व्यवस्था को नाकों चने चबाने पड़े थे। 

मेरी समझ में ये नहीं आता कि गैंगरेप की घटनाओं में भी कोई इंसान कैसे साम्प्रदायिक और राजनैतिक उन्माद फैलाने का विचार ढूंढ लेता है। हद तो तब हो जाती है ; जब उसका यह विचार अमल में लाते ही सफलता की सीढ़ियां चढ़ने लगता है। एक सवाल छोड़कर अपनी बात समाप्त करना चाहती हूँ कि क्या गैंगरेप जैसी वहशियाना घटनाओं में भी आरोपियों का धर्म या पेशा देखा जाना जरूरी है ? क्या रेप की घटना को अंजाम देने वाला शख्स भी धर्म या सम्प्रदाय देखकर ही अपना शिकार चुनता है ?

 

 

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