सोमनाथ मंदिर का इतिहास : 17 बार के विध्वंस के बाद भी उठ खड़ा होने वाला मंदिर

"सौराष्ट्र के नैऋत्य कोण में वेरावल नाम का एक छोटा सा बंदरगाह और आखात है। वहां की भूमि अत्यंत उपजाऊ और गुंजान है। वहां का प्राकृतिक सौंदर्य भी अपूर्व है।

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“सौराष्ट्र के नैऋत्य कोण में वेरावल नाम का एक छोटा सा बंदरगाह और आखात है। वहां की भूमि अत्यंत उपजाऊ और गुंजान है। वहां का प्राकृतिक सौंदर्य भी अपूर्व है। मीलों तक फैले सुनहरी रेत पर क्रीड़ा करती रत्नाकर की उज्ज्वल फेनराशि हर पूर्णिमा को ज्वार पर अपूर्व शोभा विस्तार करती है। आखात के दक्षिणी भाग की भूमि कुछ दूर तक समुद्र में धँस गई है, उसी पर प्रभासपट्टन की अति प्राचीन नगरी बसी है। यहां एक विशाल दुर्ग है, जिसके भीतर लगभग दो मील विस्तार का मैदान है। दुर्ग का निर्माण संधिरहित भीमकाय शिलाखंडों से हुआ है। दुर्ग के चारों ओर लगभग पच्चीस फुट चौड़ी और उतनी ही गहरी खाई है, जिसे चाहे जब समुद्र के जल से लबालब भरा जा सकता है। दुर्ग के बड़े-बड़े विशाल फाटक और अनगिनत बुर्ज हैं। दुर्ग के बाहर मीलों तक प्राचीन नगर के खंडहर बिखरे पड़े हैं। टूटे-फूटे प्राचीन प्रासादों के खंडहर, अनगिनत टूटी-फूटी मूर्तियाँ, उस भूमि पर किसी असह अघट घटना के घटने की मौन सूचना-सी दे रही है। दुर्ग का जो परकोटा समुद्र की ओर पड़ता है, उसमें छूता हुआ और नगर के नैऋत्य कोण के समुद्र में घुसे हुए ऊँचे श्रृंग पर महाकालेश्वर के प्रसिद्ध मंदिर के ध्वंस दीख पड़ते हैं। मंदिर के ये ध्वंसावशेष और दूर तक खड़े हुए टूटे-फूटे स्तंभ मंदिर की अप्रतिम स्थापत्य कला और महत्ता की ओर संकेत करते हैं।”

ये पंक्तियां आचार्य चतुरसेन शास्त्री की पुस्तक “सोमनाथ” की हैं जो सोमनाथ मंदिर की महत्ता और उसके ऊपर हुए आक्रमणों की गाथा कहती हैं। आज भी वेरावल में स्थित महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का सोमनाथ मंदिर भारत में एक विशिष्ट स्थान रखता है। यह बारह ज्योतिर्लिंगों में से प्रथम माना जाता है।

कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण चंद्रदेव सोमराज ने सतयुग में दक्षराज के श्राप से मुक्ति के लिए शिवभक्ति हेतु करवाया था। यह भी मान्यता है कि इसी मंदिर के पास श्रीकृष्ण ने अपना देहत्याग किया था। इस मंदिर का उल्लेख श्रीमद्भागवत, ऋग्वेद के साथ ही अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी होता है।

अनेकों आक्रमण झेल चुके इस मंदिर की चर्चा हम आज इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज 8 जनवरी के ही दिन 1026 ईसवी में महमूद गजनवी ने इस मंदिर पर आक्रमण कर इसका विध्वंस किया था। इस आक्रमण में हजारों लोगों की जान गई थी एवं करोड़ों की संपत्ति को गजनवी द्वारा लूटा गया था।

अरब यात्रि अल बरुनी द्वारा अपने यात्रा वृत्तांत में इस मंदिर की संपदा का वर्णन किया गया था जिससे प्रभावित होकर गजनवी ने 1025 ईसवी में इस पर आक्रमण कर इसकी संपत्ति लूटी एवं मंदिर को ध्वंस कर दिया था।

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इस मंदिर का जितनी बार विध्वंस हुआ उतनी बार यह फिर से उठ खड़ा हुआ। गजनवी के आक्रमण के बाद इसका पुनर्निर्माण मालवा के राजा भोज एवं राजा भीमदेव द्वारा करवाया गया था।

इसके पश्चात 1297 ईसवी में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति नुरसत ख़ान ने इसका ध्वंस करवा दिया था। इसके बाद लगभग हर कुछ सालों में इस पवित्र मंदिर के ध्वंस और पुनर्निर्माण का क्रम चलता रहा। 1665 एवं 1706 ईसवी में औरंगजेब के हमलों के कारण ध्वस्त हुए मंदिर को मराठों ने पुनर्निर्मित करवाया था।

वर्तमान में स्थित मंदिर सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रयासों से साल 1951 में तैयार हुआ। 1962 वर्ष में यह मंदिर पूर्णतया बनकर तैयार हो गया था जो आज भी महाकाल के भक्तों के बीच में श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है।

 

 

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