वाराणसी — काशी विश्वनाथ मंदिर विगत 35 वर्षों से सरकारी नियंत्रण में हैं. इस दौरान चढ़ावे और दान आदि से न्यास को अरबों की आय हुई होगी. मगर उस धन का जन कल्याण में कितना उपयोग किया गया अब तक, करोड़ टके का सवाल यही है ? बस एक काम किया गया, और वह था आसपास के भवनों का अधिग्रहण और उनकी रजिस्ट्री.
इसी तरह के समाचार ही हम आए दिन देखते, पढ़ते और सुनते चले आए हैं. तर्क यह कि गेस्ट हाउस बनेंगे, कार्यालय बनेंगे. किसके लिए ? श्रद्धालुओं के लिए नहीं सरकारी अफसरों के लिए. लेकिन उनका भी कुछ बनना वनना नहीं, सिर्फ कोरी बयानबाजी.
हाल मे कुछ अति महत्वाकांक्षी तत्वों के साथ मिल कर मंदिर के मुख्य कार्यपालक अधिकारी ने न्यास की ओर से “विश्वनाथ को गंगा दर्शन” का नया शिगूफा छोड़ा है. मीडिया में धड़ाधड़ खबरें प्लांट की जा रही हैं कि विश्वनाथ मंदिर से लगायत ललिता घाट तक की बस्ती साफ कर दी जाएगी, गंगा को मंदिर के द्वार तक लाया जाएगा.
इस योजना के निर्माताओं को न तो दुनिया के इस प्रचीनतम जिंदा शहर के भूगोल की जानकारी है और न ही इसकी प्रचीनतम ऐतिहासिक सांस्कृतिक विरासत से ही ये बुद्धमान लोग अवगत हैं. जिस बस्ती को जमींदोज करने की बात चल रही है वह त्रिशूल पर बसी काशी के मध्य त्रिशूल यानी विध्य पर्वत माला की तीन छोटी पहाड़ियों में एक विश्वेश्वर पर स्थित है. वर्तमान काशी विश्वनाथ मंदिर की उम्र भले ही चंद सौ साल ही है मगर विश्वेश्वर पहाड़ी हजारों साल का इतिहास अपने गर्भ में समाए हुए है और भगवान शिव की तरह अजन्मी है. इसका अस्तित्व तो मां गंगा के धरती पर अवतरण से भी पहले का है.
यहां यह बताना समीचीन होगा कि काशी तीन पहाड़ियों केदारेश्वर, विश्वेश्वर और ओंकारेश्वर पर स्थित है. बीच की पहाड़ी विश्वेश्वर ही नगर की छत है. आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित मां सरस्वती वहां विराजती हैं. सरस्वती फाटक से लाहौरी टोला के बीच का क्षेत्र ही शहर का माउंट एवरेस्ट है. जिसको विश्वास न हो वह चल कर आए और देखे कि वहां से चारों ओर ढलान है. कभी सोचा इन महापुरुषों ने कि लगभग हर घाट पर बहने वाले सोतों में जल कहां से आता है ?
यही नहीं इसके भूगर्भ में दबी है मंदिरों की बस्ती. इन महानुभावों को पता है भी कि नहीं कि पिछले दिनों बाबा के पड़ोस में स्थित सरस्वती उद्यान में नगर की सांस्कृतिक – सामाजिक – साहित्यिक संस्था और सरकार के पुरातत्व विभाग के संयुक्त तत्वावधान में हुए उत्खनन से ईसा पूर्व सात और आठ हजार साल पहले का इतिहास सामने आया था.
जिस इलाके को मिटाने की साजिश की जा रही है उसके दो सौ मीटर की परधि अनगिनत साहित्यकार, कर्मकांडी, महामहोपाध्याय, चिकित्सक, आईएएस – सैन्यअधिकारियों, पत्रकारों की जन्म- कर्म स्थली भी रही है. उनकी निशानियों को बजाय संरक्षण देने, उन्हें मिटाने का भी कुचक्र भी इस तथाकथित ‘गंगा दर्शन’ अभियान के बहाने रचा जा रहा है.
कहा जा रहा है कि ललिता घाट से नहर के माध्यम से गंगाजल विश्वनाथ मंदिर लाया जाएगा. जरूर लाइए मगर इसके लिए बस्ती मिटाने की कोई जरूरत नहीं. आप गली के अंदर पाइप डाल कर गंगाजल मंदिर तक ले जा सकते हैं. वहां इसके लिए कुंड निर्माण की आवश्यकता भर रहेगी.
जरूरत इस एतिहासिक सांस्कृतिक विरासत को सजाने सवांरने और संरक्षण प्रदान करने की है. विश्वनाथ जी के चतुर्दिक दो सौ मीटर के इलाके में जो भी मकान और मंदिर स्थित हैं, उनकी देख रेख और सौंदर्यीकरण की जिम्मेदारी क्या न्यास की नहीं बनती ? क्या उस पूरे क्षेत्र को गेरुआ रंग में रंगने के लिए भी सरकार या न्यास ने कभी सोचा ? क्या श्रद्घालुओं की सुविधा का उन्हें कभी ख्याल आया ?
(रिपोर्ट-बृजेन्द्र बी यादव, वाराणसी)