आदमखोर अल्फा का अंत ,निशाने पर थे मासूम बच्चे…

आगरा — ताज नगरी में लोगों को आखिर राहत मिल ही गई। आतंक का पर्याय बने आदमखोर बंदर का अंत हो गया।दरअसल पिछले एक पखवाड़े से छाया आदमखोर बंदर अल्फा का आतंक बुधवार को पिंजरे में कैद हो गया।जिसके बाद लोगों ने सुकुन की सांस ली। 

बता दें कि आगरा के रुनकता में पिछले दिनों चौदह दिन के मासूम को मां की गोद से छीनने के बाद बंदर ने बड़ी क्रूरता से उसे मार डाला था। जिसके बाद से आदमखोर बंदर को पकडऩे की कई कोशिशें की गई लेकिन हर बार लोग मायूसी ही हाथ लगी। दरअसल अल्फा यानि बंदरों के झुंड का मुखिया हमले दर हमले के बाद आदमखोर बनता जा रहा था। इधर लोग खौफ के कारण घरों में कैद रहने को मजबूर हो गए थे।

इस आदमखोर बंदर के निशाने पर केवल मासूम बच्चे रहते थे। जिसके चलते क्षेत्र के बच्चों को लोग घरों से निकलने नहीं दे रहे थे। हालांकि बुधवार को अल्फा दो माह के मासूम की वजह से ही पकड़ में आ सका। 

दरअसल रुनकता के कचहरा थोक मोहल्ले में रहने वाली रजनी के घर दो दिन पूर्व उसकी बड़ी बहन अपने दो माह के बच्चे के साथ आई थी। बच्चे के घर में आने के बाद से आदमखोर बंदर घर के आस पास ही चक्कर लगा रहा था। बच्चे के ऊपर मंडराते खतरे को परिवार के लोगों ने भांप लिया था। रजनी की बहन अपने बच्चे के साथ चली गईं। इसके बाद से परिजनों ने घर के दरवाजे खुले रखे। 

योजना आदमखोर बंदर को पकडऩे की थी। बंदर जैसे ही घर के पास आया तो परिजन छुप कर नजर रखे रहे। मौका देखकर बंदर बच्चे पर हमला करने के इरादे से जैसे ही घर के कमरे में दाखिल हुआ तो परिजनों ने कमरे का दरवाजा लगा दिया और वन विभाग को तुरंत सूचित किया। विभाग के कर्मचारियों ने मौके पर पहुंचकर बंदर पर रजाई डालकर काबू में लिया।इसके बाद लोगों ने राहत की सांस ली। 

गौरतबल है कि आदमखोर बंदरों का शहर की बस्तियों से लेकर गांवों की गलियां खौफजदां हैं। बाजारों से लेकर खेतों तक आतंक मंडराता रहता है। सुबह हो या दोपहर, या फिर हो शाम, जंगल के जानवर बस्तियों में आकर आदमखोर बन गए हैं। घुड़की देने वाले बंदर खूंखार बन गए हैं। छत हो या छज्जा, आंगन हो या कमरा, बंदरों के झुंड आक्रमण बोलते हैं। सामना किया तो खैर नहीं, उल्टे पैर भागे तो भी खतरा। ऐसे में कोई छत से गिर जाता है तो कोई दीवार से टकराता है। पिछले वर्षों में एटा और कासगंज सहित आगरा मंडल में तमाम जिंदगियां आवारा आतंक में खत्म हो चुकी हैं। हमलों से घायल अनगिनत लोग घर पर जिंदा लाश बने हुए हैं।

वहीं इस आतंक को खत्म करने के लिए तमाम योजनाएं बनीं। हर बड़े हादसे के बाद फाइल भी दौड़ी, मगर बाद में ऐसी योजनाएं फाइलों में दम तोड़ रही है । शहरी क्षेत्रों से बंदरों, श्वानों को पकडऩे की प्रक्रिया कभी भी मिशन नहीं बन पाई। नौकरशाही की यही ढिलाई लोगों के लिए भयानक खतरा बन चुकी है। आवारा जानवरों का कुनबा निरंतर बढ़ता जा रहा है। घने इलाकों में लोगों को पिंजरे में रहने को मजबूर होना पड़ रहा है। इससे पहले कि ये आतंक  बेकाबू हो जाए, जरूरत है इस पर अंकुश लगाने की। नौकरशाही को ठोस योजनाएं जल्द से जल्द अमल में लाना होगा।

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