(श्वेता सिंह)
‘‘विवेकानन्द तुम जीते जग हारा ,
तेरे कारण धन्य हो गया ,
भारतवर्ष हमारा ।।’’
आज पूरा भारतवर्ष जिस महापुरूष की जयंती के रूप में युवा दिवस मना रहा है , उसी भारतवर्ष के युवा की तस्वीर इस लेख में प्रस्तुत है । कहते हैं कि किसी भी देश का युवा उस देश की तकदीर और भविष्य का आईना होता है। राजनीति की गलियों में आज अखिलेश राहुल जैसे युवा नेताओं ने देश को एक नई दिशा देने की पहल की है और ‘युवा जोश , युवा सोंच’ के मंत्र को सार्थक करने का प्रयास कर रहे हैं। इसी तरह से अन्य सभी क्षेत्रों में युवा जगत अपनी धाक जमा रहा है। आंखों में उम्मीद के सपने , नई उङान भरता मन और कुछ कर जाने की इच्छा रखने वाला ही युवा होता है। युवा शब्द ही मन में उङान और उमंग पैदा कर देता है और यही युवा आगे चलकर अपने देश का भविष्य निर्धारित करता है।
11 सितम्बर , 1893 को शिकागो के धर्मसंसद में जब विवेकानन्द ने ‘अमरीकावासी भाइयों और बहनों’ कहा तो पूरा हॉल तालियों की गङगङाहट से गूंज उठा। इस तरह उन्होंने अपनी भारतीय संस्कृति के बल पर प्रसिद्धि हासिल की , किन्तु वर्तमान परिदृश्य में युवा भौतिकतावाद की अंधी दौङ में कहीं न कहीं फंसता चला जा रहा है। भारतीय संस्कृति और नैतिकता तो जैसे आज का युवा भूल ही गया है। पश्चिमीकरण से प्रभावित होकर आज किशोर भी 14-15 वर्ष की आयु में ही कुकृत्यों की ओर बढ रहे हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि कई उच्च शिक्षा प्राप्त युवा ऐसे पद पर कार्य करने के लिए मजबूर हैं, जिस पद पर अशिक्षित व्यक्ति भी योग्य है।
अभी कुछ दिनों पहले ही प्रकाशित खबर युवकों की उच्च शिक्षा पर सवाल खङा कर रही थी , जब एम. बी.ए. , बी. टी. सी. की शिक्षा प्राप्त करके युवा वर्ग सफाई कर्मचारी के पद के लिए कतार में खङे देखे गए थे । इसे अगर हिन्दुस्तान के सुनहरे पृष्ठ पर काला निशान कहा जाए तो ही उचित होगा , क्योंकि इस देश को एक नई दिशा दिखाकर रोशनी की ओर ले जाने वाला युवा वर्ग स्वयं ही अंधकार में रहता है और ये सब उनकी शिक्षा और प्रतिभा पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। ऐसे में स्वयं विवेकानन्द द्वारा देखे गए युवा देश का सपना हकीकत से कोसों दूर ही लगता है।
एक बार एक शख्स ने विवेकानन्द जी से पूंछा कि -‘सब कुछ खोने से ज्यादा बुरा क्या है?’ स्वामी जी ने जवाब दिया -‘उस उम्मीद को खो देना , जिसके भरोसे पर हम सब कुछ वापस पा सकते हैं।’ विवेकानन्द के शब्दों, लेखों और कविताओं के मूल्य आज भी सार्थक हैं। उनकी प्रासंगिकता आज भी बरकरार है। आधुनिक भारत के राजनीतिक , धार्मिक और सामाजिक आदि सभी क्षेत्रों में ऐसा काई महारथी नहीं है, जो स्वामी जी कम जीवन से अनुप्राणित न हुआ हो । आज केवल यही जरूरत है कि विदेशी संस्कृति को हटाकर हमारे विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन किया जाए और साथ ही साथ पाश्चात्य विज्ञान भी सीखा जाए। हमें इन विदेशी सभ्यताओं का कुछ सकारात्मक अंश तो ग्रहण करना चाहिए , किन्तु सावधान भी रहना चाहिए। यदि युवा शक्ति का सही दिशा में उपयोग हो तो स्वामी विवेकानन्द की प्रासंगिकता शास्वत सिद्ध हो सकती है।