प्रतापगढ़ — पांच बांस, एक साइकिल की रिम, एक मोटा रस्सा और कुछ रस्सियों के सहारे जीवन और परिवार की गाड़ी खींचने की जिम्मेदारी महज चार से पांच साल की मासूम के सधे कदमों पर। यही दिनचर्या है
प्रमोद और उसकी बेटी की हालांकि मासूम के हर सधे हुए कदमो पर पिता प्रमोद की निगाहें जमी रहती है लेकिन पापी पेट की आग जो न कराए।
सरकार के पढ़े बेटियां बढ़े बेटियां के नारे को मुह चिढ़ाते नजर आते है, इतना ही नही श्रम मंत्रालय द्वारा उद्योगों और खतरनाक उद्योगों में लगे बाल मजदूरो को पढ़ाने को तमाम योजनाएं एनजीओ के द्वारा भी चलाने के बावजूद इस तरह के नजारे अक्सर सड़को के किनारे या बाजारों में अक्सर नजर आते है कभी जादू दिखाते मासूम तो कभी रस्सी पर जान की बाजी लगाते मासूम।
जिस उम्र में बच्चे स्लेट और चाक के पढ़ने की कोशिशों के साथ ही गांव गलियों और चौबारों में खेलते कूदते नजर आते है उस उम्र की ये मासूम रस्सी पर जान को जोखिम में डाल कर लोगो का मनोरंजन करते हुए लोगो के खुश होने की आस में अपनी थाली में चंद सिक्को की खनक का इंतजार करती है और लोगो के सामने बड़ी उम्मीद से बिना कुछ बोले थाली आगे कर देती है इस अंदाज में की जो दे उसका भी भला जो न दे उसका भी भला।
जो कुछ थाली में मिलता है उसी से पूरे परिवार की गृहस्थी की गाड़ी चलती है। हालांकि पहले ढोल बजते थे अब साउंड बॉक्स में गाना बजता है। बड़ा सवाल ये है कि सरकार की सारी योजनाएं जो बेटियों और मासूम बच्चों को पढ़ाने के लिए संचालित हो रही है उनका लाभ किसे दिया जा रहा है। हालांकि ये किस जिले और राज्य के है इसके बारे कोई खास जानकारी नही मिल सकी लेकिन इनकी भाषा बताती है कि ये हिंदी भाषी है।
(रिपोर्ट-मनोज त्रिपाठी,प्रतापगढ़)