गोंडा– दुर्गा पूजा शक्ति उपासना का पर्व है। शारदीय नवरात्रि में मनाने का कारण यह है कि इस अवधि में ब्रह्मांड के सारे ग्रह एकत्रित होकर सक्रिय हो जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव प्राणियों पर पड़ता है। ग्रहों के इसी दुष्प्रभाव से बचाने के लिए नवरात्रि में दुर्गा की पूजा की जाती है।
कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश में भारत और नेपाल की सीमा पर बसा बलरामपुर जनपद का यह भाग आध्यात्मिक शक्ति और तपोभूमि के रूप में विश्वविख्यात है। तुलसीपुर नगर से दो किलोमीटर की दूरी पर सिरिया नाले के पूर्वी तट पर स्थित सिद्ध शक्तिपीठ माँ पाटेश्वरी देवी का मंदिर युगों से कष्टों के निराकरण और मनोकामनाओं की पूर्ति का एक परम विश्वास है। विशेष रूप से नवरात्र पर जनसैलाब यहां उमड़ता है और सबकी आराघ्य माँ पाटेश्वरी देवी की शरण पाकर संसार के सारे दुखों से
अपने को मुक्त पाता है। देवी पाटन की महिमा का बखान शब्दों में संभव नहीं है और धन्य हैं वो, जिन्होंने इस पावनधाम को इतनी भव्यता और अलौकिक स्वरूप प्रदान कर इसे आत्मशांति का मार्ग बना दिया है। यह शक्तिपीठ देशभर में फैली 51 शक्तिपीठों में प्रमुख रूप से पूज्य स्थान है।
पुराणों के अनुसार शिव और सती के प्रेम का प्रतीक स्वरूप है। लोककथा के अनुसार पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ में पति महादेव की उपेक्षा से नाराज सती ने क्रोधित होकर अपने प्राण त्याग दिये। इससे क्षुब्ध देवाधिदेव महादेव ने महाराज दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर सती के शव को अपने कंधे पर रखकर तीनों लोक में निकल पड़े तो संसार चक्र में व्यवधान उत्पन्न हो गया। उपाय स्वरूप तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन-चक्र से सती के विभिन्न अंगों को काट-काटकर भिन्न-भिन्न स्थानों पर गिरा दिया। पृथ्वी पर जहां-जहां सती के अंग गिरे, वहां-वहां वे स्थान सिद्ध और परम गति को प्राप्त हुए जिनको आज शक्तिपीठ कहा जाता है। इन्हीं में माँ देवीपाटन एक पवित्र धाम है जहां हर कोई अपना दुख-दर्द और खुशियां बांटने के लिए आता है।
पाटेश्वरी देवीपाटन शक्तिपीठ की आध्यात्मिक शक्ति और उसके सामाजिक दायित्वों के बारे में काफी कुछ सुना जाता रहा है। मान्यता है कि जहां वाम स्कंध सहित सती देवी का पाटंबर गिरा था, वही स्थान देवीपाटन के नाम से प्रसिद्ध है। कालांतर में आदिनाथ भगवान शिव की आज्ञा से शिवावतार महायोगी गुरू गोरक्षनाथ ने यहां देवी की पूजा-अर्चना के लिए एक मठ का निर्माण कराया और स्वयं काफी समय तक पूजा करते हुए साधनारत रहे। इस प्रकार यह स्थान एक सिद्ध शक्तिपीठ होने के साथ-साथ सिद्ध योगपीठ भी कहलाता है। देवी भागवत, स्कंद और कालिका आदि पुराणों तथा शिव-चरित्र आदि तांत्रिक ग्रंथों में विभिन्न शक्तिपीठों, उपपीठों का वर्णन मिलता है। वस्त्रों को जोड़ें यह संख्या 52 या 53 भी हो जाती है। चूंकि यहां सती का वामस्कंध सहित पाटंबर गिरा था,इसीलिए इसका नाम है,जो उनके नाम परबसे पत्तन (पाटननगर) देवी शक्ति पाटन पीठ के नाम से जाना गया।
देवीपाटन की देवी का एक दूसरा भी प्रसिद्ध नाम तथा इतिवृत्त पातालेश्वरी देवी के रूप में प्राप्त होता है। कहते हैं कि अयोध्या की महारानी सीताजी लोकापवाद से खिन्न होकर अंततः यहीं पर धरती माता की गोद में बैठकर पाताल में समा गईं थीं। इसी पाताल-गामी सुरंग के ऊपर देवीपाटन-पातालेश्वरी देवी का मंदिर बना हुआ है। यह भी प्रसिद्ध है कि यह दिव्य क्षेत्र दशावतारों में छठें परशुरामजी की तपोभूमि है तथा यहीं उनसे महाभारत कथा के एक नायक सूर्य-पुत्र कर्ण ने धनुर्वेद की शिक्षा ली थी। यहां सूर्यकुंड इस जनश्रुति की पुष्टि करता है, जिसमें श्रद्धा-विश्वास सहित स्नान कर देवी का दर्शन करने वालों का चर्म रोग दूर होता है। यहां कर्ण की एक प्राचीन प्रतिमा भी विद्यमान है।
देवीपाटन का मंदिर सबसे पहले कब बना था और किसने बनवाया था?
तंत्र-ग्रंथों में उल्लेख और महायोगी गोरक्षनाथजी, भगवती सीता, भगवान परशुराम एवं दानवीर कर्ण की स्मृतियों से जुड़ा होने के कारण यह एक अत्यंत विश्वसनीय और प्राचीन स्थान है। एक शिलालेख के अनुसार यहां प्रथम मंदिर-निर्माण का श्रेय गुरु गोरक्षनाथजी को है, वहीं एक जनश्रुति के अनुसार प्रसिद्ध भारतीय सम्राट वीर विक्रमादित्य ने इसका अपने समय में जीर्णोद्धार कराया था। विधर्मियों के आक्रमण एवं प्रभाव विस्तारकाल में अन्य हिंदू धर्मस्थलों की तरह इस मंदिर को भी तोड़ने के कई प्रयास हुए थे, जिसमें श्रद्धालु जनता के प्रतिरोध के कारण उन्हें सफलता नहीं मिली। यहां तक कि मंदिर तोड़ने आये मुस्लिम सिपहसालार मीर समर को यहां अपनी जान भी गंवानी पड़ी, जिसकी कब्र मंदिर के बाहरी परिसर में ही बनी है। शक्ति-पूजा एवं योग साधना का यह जाग्रत स्थान व्यवस्था की दृष्टि से कालक्रम से अनेक हाथों से होता हुआ भारत की स्वतंत्रता के बाद अखिल भारतवर्षीय अवधूत भेष बारह पंथ योगी-महासभा के अंतर्गत श्रीगोरक्षनाथ मंदिर के संरक्षकत्व में महंत दिग्विजयनाथ महाराज के समय में आया। तब से इसमें काफी सुधार, निर्माण एवं विस्तार भी हुआ है जो अब भी निरंतर जारी है। अभी कुछ वर्ष पूर्व ब्रह्मलीन हुए महंत महेंद्रनाथ ने मंदिर सहित संपूर्ण परिसर के सुंदरीकरण, आधुनिकीकरण एवं जनसुविधाओं के विस्तार आदि का सराहनीय कार्य किया था, जिससे इस स्थान की महत्ता और लोकप्रियता में बहुत वृद्धि हुई है और इस शक्तिपीठ के इतिहास एवं महात्म्य को जानने के लिए लोगों में जिज्ञासा और उत्सुकता भी बढ़ी है। महंत मिथलेशनाथ इस समय इस शक्तिपीठ के पीठाधीश्वर हैं जो इसके विकास, निर्माण एवं सुंदरीकरण के उपयोगी कार्यक्रम को पूर्ववत जारी रख कर इसे भव्यता और विस्तार प्रदान कर रहे हैं।
—(अंकिता सोनी)