—(श्वेता सिंह )
एक दिन गुड़गांव के एक बाजार के पार्किंग में उसने एक दो साल की बच्ची को रोते हुए देखा।सर्द शाम में उस बच्ची के शरीर पर एक फटा-सा कपड़ा था।
उस बच्ची को कुछ बच्चे अपने साथ लेकर आए थे, जो आसपास ही खेल रहे थे। उसने उन बच्चों को खोजा और उनको डांट लगाई कि क्यों उन्होंने बच्ची को इस तरह छोड़ा हुआ है। बाद में वे उस बच्ची को लेकर वहां से चले गए। उसे अचानक याद आया कि स्कूल में उसने पढ़ा था कि महात्मा गांधी हमेशा कहते थे कि काम वह करो, जिसका फायदा समाज के सबसे कमजोर वर्ग को हो। राष्ट्रपिता का यह संदेश उनके जेहन में था और तत्काल उन्होंने उस बच्ची की सभी जरूरतें पूरी करके उसके घर तक पहुंचाया।
यहां बात हो रही थी एक ऐसी सख्शियत की जो अपने रिटायरमेंट वाले दिन पैरेलाइज हो गए थे ; लेकिन फिर भी उनके एक कारनामे के बाद उनका नाम लोगों के दिलों में घर कर गया। वो नाम है ;
कैप्टन नवीन गुलिया। मज़बूत इरादों की जीत की मिसाल बने नवीन गुलिया देश की सैन्य सेवा में शामिल होने के इरादे से सत्ताइस साल पहले पुणे स्थित राष्ट्रीय सुरक्षा अकादमी से जुड़े थे। तीन साल तक वहां प्रशिक्षण लेने के बाद देहरादून में एक साल का दूसरा प्रशिक्षण लेकर कैप्टन बन चुके थे, लेकिन उनकी इच्छा एक सैन्य प्रतियोगिता में भाग लेकर पैरा कमांडो बनने की थी।
इसी प्रयास में वो दुर्घटना का शिकार हो गए। उनके शरीर का निचला हिस्सा बुरी तरह से जख्मी हो गया। हेलीकॉप्टर से रेस्क्यू करके उन्हें दिल्ली लाया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें बताया कि अब वो दोबारा चल-फिर नहीं सकते। दिल को तोड़ देने वाले इस कड़वे सच के साथ वो लगभग दो साल तक अस्पताल में पड़े रहे। कोई आम इंसान होता तो शायद इन दो सालों में अपनी सारी उम्मीदें छोड़ चुका होता ; लेकिन इस सख्शियत ने तो अपनी नियति को भी विफल कर दिया।
उन्होंने कंप्यूटर साइंस में मास्टर डिग्री करने का फैसला किया। उन्होंने सोंचा की वो अपने सैन्य सेवा काल में पहाड़ी रोमांचक खेलों का शौक को ऐसे ही नहीं मरने देंगे और उसी वक्त दृढ निश्चय कर लिया कि वो इसी क्षेत्र में स्वयं को साबित करेंगे।
2004 में इंटरनेट इतना ताकतवर नहीं था, जो उस काम में उनकी मदद कर सकता। इधर-उधर से जानकारी इकट्ठा करके उन्होंने तय किया कि वो खुद गाड़ी चलाकर लद्दाख की मर्सिमिक ला चोटी तक जायेंगे। इसके लिए उन्होंने प्रायोजक ढूंढने शुरू कर दिए और वाहन कंपनियों से संपर्क साधा। काफी मशक्कत के बाद टाटा कंपनी ने उनकी पूरी तहकीकात करके अपने एसयूवी वाहन सफारी के साथ उनकी यात्रा प्रायोजित कर दी और उस व्यक्ति ने भी उन्हें निराश नहीं किया और लिम्का रिकॉर्ड बनाते हुए मात्र पचपन घंटों में यात्रा पूरी कर ली। जब चौथे स्तम्भ की मदद से दुनिया सामने एक ऐसा नाम आया ; जिसने एक्सीडेंट के बाद भी 55 घंटों तक गाड़ी चलाकर रेकॉर्ड कायम कर दिया , तो लोगों ने उनकी उस सफलता को पहचाना। लेकिन उस एक सफलता के पहले वो एक हज़ार बार असफल हुए थे। इस रेकॉर्ड को कायम करने में सबसे ख़ास बात यह थी कि 18632 फीट तक जाने के लिए उन्होंने गाड़ी में खुद ही मॉडिफिकेशन किए थे। एक्सलरेटर, ब्रेक और क्लच सहित सभी कंट्रोल्स हाथों में रखकर उन्होंने 55 घंटो तक लगातार बगैर ब्रेक लिए ड्राइव किया था। इस रेकॉर्ड के बाद नवीन डिफरेंटली एबल्ड ही नहीं 100 परसेंट एबल्ड के लिए भी मिसाल बन गए। उनका यह रिकॉर्ड आज तक बरकरार है।
हालांकि नवीन के कंधों के नीचे के हिस्से उनका भार सहने में सक्षम नही है, परंतु अपने व्हीलचेयर के जरिए वह ऐसे बच्चों का भार उठा रहे हैं, जिनका कोई नहीं। महात्मा गांधी से प्रेरित होकर उन्होंने समाज के तमाम जरूरतमंद बच्चों के लिए काम करना शुरू कर दिया। 2007 में कैप्टन नवीन गुलिया ने एक संस्था ‘अपनी दुनिया, अपना आशियाना’ की शुरुआत की। यह संस्था अलग-अलग बच्चों की उनकी जरूरतों के हिसाब से मदद करती है। उन्होंने जिन दर्जनों बच्चों को उनकी जिंदगी बेहतर करने में अपना योगदान दिया है , उनमें पंद्रह साल का सनी भी शामिल है, जो बचपन से अपंग था। वह बच्चा आज मेधावी छात्र है और पूरे आत्मविश्वास के साथ जी रहा है। बच्चों के इतने करीब रहने के कारण उन्होंने कुछ किताबें भी लिखी हैं, जिनमें हौसले से भरी कविताएं और कहानियां शामिल हैं। उनके द्वारा लिखी गई खुद की आत्मकथा ‘इन क्वेस्ट ऑफ दी लास्ट विक्टरी’ और ‘वीर उनको जानिए’ की पाठकों के बीच जबरदस्त मांग है।
नवीन को पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने ‘नेशनल रोल मॉडल अवॉर्ड’ से सम्मानित किया था। यही नहीं, उनके सराहनीय कार्यों के लिए उन्हें हरियाणा गौरव अवॉर्ड, इंडियन पीपल ऑफ द ईयर अवॉर्ड, ग्लोबल इंडियन ऑफ द ईयर अवॉर्ड से सम्मानित किया जा चुका है। कैप्टन नवीन गुलिया सिर्फ़ अक्षम लोगों के लिए प्रेरणा नहीं हैं, बल्कि वह सभी के लिए रोल मॉडल हैं। उनसे लोगों को सीखना चाहिए कि मंज़िल को पाने के लिए सिर्फ़ ताक़त की ज़रूरत नहीं होती, बल्कि उनको पूरा करने के लिए चाहिए लगन। लगन जो हमें कुछ कर गुज़रने का ज़ज़्बा देती है।