गोंडा– जिले के सदर तहसील का तरगांव आज भी देश और दुनिया भर में करोड़ों भक्तों के दिलों में बसने वाले भगवान स्वामी नारायण के बाल लीलाओं का साक्षी है। यहीं बाल्यावस्था में उन्होंने अनेक लीलाएं कर लोगों को अचंभित किया था।
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यही स्थान उनके बाल्यावस्था में ननिहाल में बीते पलों का गवाह है। आज भी यहां के भगवान वही हैं और लोग अपने इस भगवान की बाललीला, जीवन गाथा भी बड़े गर्व से सुनाते हैं। लेकिन इस बार कोरोना वायरस के कारण देश भर में लाक डाउन के कारण यहां भी उनका जन्मोत्सव नहीं मनाया जा सका।
तरगांव में 250 वर्ष पूर्व हुआ था माता पिता का विवाह-
गोंडा जिले के ही छपिया गांव के निवासी भगवान स्वामी नारायण के पिता हरि प्रसाद उर्फ धर्मदेव पाण्डेय इटार पाण्डेय थे और तरगांव निवासी उनकी माता भक्ति देवी ब्राहमणों की उपजाति बड़गइयां दूबे से थीं। उनके माता-पिता का विवाह 250 साल पहले तरगांव के जिस मंडप में हुआ था। उसके अवशेष आज भी यहां विद्यमान हैं। बचपन में वह ज्यादातर ननिहाल में रहे इसलिए इसी चबूतरे पर 08 वर्ष की अवस्था में भगवान स्वामी नारायण का जनेऊ संस्कार भी किया गया था। उनके पिता और माता के विवाह का यह मंडप (अब चबूतरा) भी उस दौर की याद दिलाता है। भक्ति देवी के बाद नौवीं पीढ़ी के काशी प्रसाद दूबे और उनका परिवार मंदिर में पूजा अर्चना के साथ इस प्राचीन विरासत की भी देखभाल करता है।
बाल लीलाओं का साक्षी प्राचीन शिव प्रतिमा-
जिला मुख्यालय से करीब मात्र 12 किमी की दूरी पर स्थित है तरगांव ग्राम। यहां स्थित प्राचीन शिव प्रतिमा और मंदिर के अवशेष ग्रामीणों के तर्क का आधार है। यहां के ग्रामीण बताते हैं कि महादेव पोखरे में एक महावत हाथी को नहला रहा था तब हाथी ने महावत को मारने का प्रयास किया लेकिन बालक घनश्याम ने उसे बचा लिया। एक और घटना में नहाते समय कांटा चुभने पर खून से पानी लाल हो गया और अचानक आए वैद्य ने उन्हें ठीक कर दिया। मौजूदा समय में उनके समय के मंदिर तो समाप्त हो गए हैं, लेकिन उनकी बाल लीलाओं का साक्षी रहा पोखरा आज भी है। पोखरे के निकट प्राचाीन महादेव मंदिर भी था, जिसमें पोखरे में भगवान स्वामी नारायण को मिली भगवान की शिव की मूर्ति स्थापित थी। यहां के अनेक ग्रामीणों का दावा है कि लाखौरी ईंट से बने इसी शिव मंदिर में भगवान पूजा करते थे। लगभग 40 वर्ष पहले पुराना मंदिर ध्वस्त होने के बाद अब यहां नए मंदिर निर्माण 25 साल पहले करवाया गया है। इस मंदिर में भगवान घनश्याम के ही प्रतिमा की पूजा होती है।
सर्व अवतारी माने जाते हैं स्वामी नारायण-
भगवान स्वामी नारायण को विभिन्न रुपों में देखा गया। उनमें अधिकांश में वह कृष्ण भगवान के रुप में है। मंदिरों में इसी रुप में उनकी मूर्तियां लगीं हैं। 03 अप्रैल 1781 (चैत्र शुक्ल 9 वि.संवत 1837) को गोंडा जिले के छपिया ग्राम में उनका जन्म हुआ। राम नवमी होने से सम्पूर्ण क्षेत्र में पर्व का माहौल था। पिता हरि प्रसाद उर्फ धर्मदेव व माता भक्तिदेवी ने उनका नाम घनश्याम रखा। बालक के हाथ में पद्म और पैर से बज्र, ऊर्ध्वरेखा तथा कमल का चिन्ह देखकर ज्योतिषियों ने कह दिया कि यह बालक लाखों लोगों के जीवन को सच्चा मार्ग दिखाएगा।
एक दिन पिता धर्मदेव ने अल्प आयु में ही बालक घनश्याम की अभिरूचि और प्रतिभा का परीक्षण करने के लिए एक जगह एक स्वर्ण मुद्रा, एक चाकू और एक गीता की पुस्तक को रखा। उन्होंने पुत्र को से उन वस्तुओं में से एक चुनने के लिए कहना चाहा कि उससे पहले ही घनश्याम ने गीता की पुस्तक को अपने हाथ में उठा लिया। इसे देखकर उनके पिता आश्चर्यचकित हो गये। पांच वर्ष की अवस्था में इस अद्भुत बालक को अक्षर ज्ञान दिया गया। छोटी अवस्था में ही उसने अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। 11 वर्ष की आयु में ही उनके माता व पिता का देहांत हो गया। अपनी संत प्रवृत्ति के कारण उन्होंने घर त्याग दिया और सात वर्षों तक पूरे देश की परिक्रमा की। अब लोग उन्हें नीलकंठवर्णी कहने लगे। घूमते घूमते वे उत्तर में हिमालय, दक्षिण में कांची, श्रीरंगपुर, रामेश्वरम् के बाद गुजरात पहुंच गये।
नीलकंठवर्णी घनश्याम से बने सहजानंद-
नीलकंठवर्णी घनश्याम मांगरोल के पास ‘लोज‘ गांव में पहुंचे तो वहां उनका परिचय स्वामी मुक्तानंद में हुआ, जो स्वामी रामानंद के शिष्य थे। कुछ समय बाद स्वामी रामानंद ने नीलकंठवर्णी को पीपलाणा गांव में दीक्षा देकर उनका नाम सहजानंद रख दिया। एक साल बाद जेतपुर में उन्होंने सहजानंद को अपने सम्प्रदाय का आचार्य पद भी दे दिया। स्वामी रामानंद जी के गोलोक वासी होने पर स्वामी सहजानंद ने गांव-गांव घूमकर सबको स्वामी नारायण मंत्र जपने को कहा।
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उन्होंने निर्धन सेवा को लक्ष्य बनाकर सब वर्गों को अपने साथ जोड़ा। इससे उनकी ख्याति सब ओर फैल गयी। वे अपने शिष्यों को पांच व्रत लेने को कहते थे। इनमें मांस, मदिरा, चोरी, व्यभिचार का त्याग तथा स्वधर्म के पालन की बात होती थी। भगवान स्वामी नारायण ने जो नियम बनाये, वे स्वयं भी उनका कठोरता से पालन करते थे। उन्होंने यज्ञ में हिंसा, बलिप्रथा, सतीप्रथा, कन्या हत्या, भूत बाधा जैसी कुरीतियों को बंद कराया। उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः गुजरात रहा। प्राकृतिक आपदा आने पर वे बिना भेदभाव के सबकी सहायता करते थे।