तौसीफ़ क़ुरैशी
पाँच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के बाद देश आमचुनावों की तैयारी शुरू कर देगा बल्कि अगर यू कहे कि पहले ही शुरू कर दी है तो ग़लत नही होगा सभी दल अपने-अपने कार्यकर्ताओं से बूथ स्तर तक की तैयारियों में जुटने की बातें कर कर रहे है।
राजनीति में अगर किसी के पास कोई मज़बूत कार्यकर्ता है तो उसकी पार्टी की नींव मज़बूती के साथ ज़मीन पर दिखाई देगी और उसी की ताक़त की बदौलत वह सत्ता की दहलीज़ तक जाने में सफल होती है। लेकिन जैसी ही सत्ता की चाबी उनके हाथ आती है तो सत्ता के इस योद्धा की ताक़त को भुला दिया जाता है इसकी क्या वजह यह भी बताएँगे।सियासत में आज कल ज़्यादातर आम चुनाव को लेकर गाँव ,गली , चौराहों और चाय की दुकानों व चौपालों , बसों, ट्रेनों अख़बारों की सुर्ख़ियों और नेताओं के चुनावी बयानों पर सियासी समीकरणों पर लंबी -लंबी बहस चल रही है कोई सरकार बना रहा तो कोई गिरा रहा है तो कोई देश में व्याप्त साम्प्रदायिक माहौल को लेकर गंभीर है।
जो लोग देश के सियासी माहौल में साम्प्रदायिकता का ज़हर बो रहे है वह तो मस्त है लेकिन वह लोग अति गंभीरता से उसके बारे में सोच रहे है कि अगर यही सब चलता रहा तो यह देश कहाँ जाएगा क्या होगा क्या नही वह यही सोच-सोच के दुबले हुए जा रहे है।ज़मीन पर रिपोर्टिंग करने के बाद यह पता चलता है कि ऐसा नही है। देश में जो माहौल आज दिखाई देता है या यूँ कहे कि जिस तरह प्रायोजित तरीक़े से गोदी मीडिया दिखाता है वैसा नही है हम मुसलमानों की बात नही कर रहे है क्योंकि आज भी बहुसंख्यक वर्ग ही साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ खड़ा है। देश में राज करने वाली साम्प्रदायिक पार्टी मोदी की भाजपा को मात्र 31 प्रतिशत वोट मिला बाक़ी 69 प्रतिशत वोट साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ गया चाहे वह किसी भी दल को गया हो पर उसने साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ वोट किया लेकिन उस 69 प्रतिशत की कोई बात नही करता बात हो रही है तो उस 31 प्रतिशत की जिसने ज़हर बोने को ज़मीन दी और सियासी पार्टियाँ उस पर अपनी ज़हरीली फ़सल लहरा रहे है।
सब पार्टियाँ उसके पीछे भाग रही है अब सवाल उठता है कि क्या उस वोट को देश की सियासी पार्टियाँ नकार रही है जिन्होंने साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ वोट किया है जो देश को एकजुट रखने के हामी है लेकिन जिस तरह हर कोई दल हिन्दुत्व की तरफ़ दौड़ता दिखाई दे रहा उससे से तो यही लगता है कि वह लोग मुर्ख है जो देश को एकजुट रखने की सोच रखते है ऐसा नही है यह सब ज़्यादा दिनों तक नही चलने वाला है। हमें ऐसा माहौल बनाना होगा कि हर हाथ को काम देना होगा ताकि वह फ़ालतू बात ही न सोच सके यह सब ख़ाली रहने की वजह से हो रहा है हमारे युवाओं के लिए रोज़गार की कमी है जिसकी वजह से युवा भटक रहा है उसको सही दिशा देने की ज़रूरत है।
ख़ैर हम बात कर रहे थे उस कार्यकर्ता की जिसकी वजह से यह संगठन चलते है लेकिन इन पार्टियों की ये सियासी इमारतें जिस कार्यकर्ता रूपी नींव पर खड़ी है उसमें लगी कार्यकर्ता रूपी इटें अन्दर-अन्दर ही क़राह रही है कभी कोई उनकी बात नही करता है। सियासी दलों के चुनावी खेल को ज़मीन पर ताक़त देने का काम कार्यकर्ता करता है चाहे सत्ता का सुख भोग रही मोदी की भाजपा हो या विपक्ष में बैठी सैकड़ों साल पुरानी कांग्रेस हो इन्हीं कार्यकर्ताओं की वजह से इनका अस्तित्व होता है और अगर यह कड़ी टूट जाए तो वह ख़त्म हो जाते है लेकिन फिर भी इनके नसीब में सिर्फ़ घिसना ही लिखा है। सर्दी में ठिठरकर ,गर्मी में तपकर बरसात में भीगकर पार्टी की दिन रात सेवा करने वाले कार्यकर्ताओं की क़िस्मत इतनी रूठी हुई क्यों होती है कि पिछले चुनाव में जहाँ खड़ा था वही खड़ा मिलता है अगले चुनाव में भी या उससे भी पीछे यह बात गले नही उतरती है।
रैली में भीड़ जुटानी हो या वोटरों को बूथ तक ले जाना हो,पुलिस की लाठी खाने की बारी हो या प्रदर्शन की ज़रूरत हर बार कार्यकर्ता अपनी उर्जा के साथ पार्टी के लिए कवच बनकर खड़ा मिलता है और ज़्यादातर पैसा भी अपना ही लगाते है क्योंकि पार्टी में इस तरह का कार्यकर्ताओं के लिए कोई फ़ंड नही होता है और न ही वो धन नही देती है उसकी व्यवस्था भी उसे ही करनी पड़ती है अब सवाल उठता है कि इतनी क़ुर्बानियों के बाद भी उसको सिला क्यों नही मिलता है क्या उसे यह सब बंद कर देना चाहिए नेताओं को अपने हाल पर छोड देना चाहिए ऐसे बहुत से सवाल है जो उनके पसीने से आने वाली कराह सुनाई देते है पर पता नही क्यों नेताओं को क्यों नज़र नही आता यह सब या सब जानने के बाद अंजान बनने में ही अपना भलाई समझते है।
*लखनऊ से तौसीफ़ क़ुरैशी*