इटावा–बचपन में रामलीला देखने के शौक ने बन्ने मियां को बाबा हंसदास बना दिया। रामलीला देखते-देखते राम से लगाव हो गया और फिर राम, जटायु, विभीषण और कैकेयी के पात्रों की भूमिका निभाने लगे।
कस्बा इकदिल में 14 अगस्त 1938 को कल्लन खां के घर जन्मे बन्ने मियां को बचपन से ही धार्मिक कार्यो में रुचि रही। वह रामलीला में संवाद गौर से सुनते थे। वह मानस की चौपाइयों का सस्वर गान करने के साथ ही संस्कृत के श्लोक फर्राटे से पढ़ते हैं। उन्होंने रामलीला को बढ़ावा देने के लिए आसपास के गांवों में 14 रामलीला मंडलियों का गठन करवाकर इस कला को नया आयाम दिया।
75 वसंत देख चुके बन्ने मियां उर्फ बाबा हंसदास कहते हैं कि मानव एक ही मालिक की संतान है। फिर अलग अलग धर्मो की लड़ाई क्यों। वह संस्कृति के प्रसार के लिए काम कर रहे हैं। लगातार 40 वर्ष से रामलीलाएं कर रहे हैं। वह इकदिल की रामलीला समिति के 15 वर्ष डायरेक्टर रहे। 1981 से घर नहीं गए। वह कबीर आश्रम गुरुद्वारा इकदिल में ही रह रहे हैं। आश्रम के प्रवेश द्वार पर रामध्वज लगा है। एक कमरे में बाबा के गुरु रामदास साहिब की गद्दी है। गुरु के महाप्रयाण के बाद बाबा हंसदास ही गुरू की गद्दी संभाल रहे हैं।
फक्कड़पन के कारण ही वह कबीर आश्रम गुरुद्वारा के उत्तराधिकारी हैं। वह 28 वर्ष से कबीर आश्रम गुरुद्वारा में रह रहे हैं। बाबा हर वर्ष आश्रम के भंडारा कार्यक्रम आयोजित कराते हैं। वह दूरदराज से शिक्षा ग्रहण करने आने वाले छात्रों को आश्रम में निशुल्क कमरा देते हैं। उनके आश्रम में गुरु जी की गद्दी पर माथा टेकने सांसद, विधायक, चेयरमैनी का चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी आते हैं।
बन्ने मियां उर्फ बाबा हंसदास वर्तमान में बढ़ रही पाश्चात्य संस्कृति पर चिंता जताते हैं। वह पाश्चात्य संस्कृति के विरोधी हैं। मुस्लिम समाज में जन्मे बन्ने मियां उर्फ बाबा हंसदास सभी धर्मो को एक मानते हैं। निस्वार्थ समाजसेवा के लिए वर्ष 2003 में पीएमसी संस्था द्वारा सोशल रिफार्म अवार्ड दिया गया था। भारत साधु समाज नई दिल्ली के वह सदस्य रहे हैं। तीस वर्ष पूर्व प्रदर्शनी पंडाल इटावा में लवकुश लीला का मंचन देख तत्कालीन जिलाधिकारी ने बन्ने मियां उर्फ बाबा हंसदास को सम्मानित किया था।