नेताओं का ‘दलित प्रेम’ दिखावा या छलावा !!

0 53

—(श्वेता सिंह )

शाम के समय दरवाजे पर दस्तक हुई तो दलित व्यक्ति ने दरवाजा खोला। दरवाजा खुलते ही वह हक्का – बक्का रह गया क्योंकि उसके सामने भारी – भरकम लाव – लश्कर के साथ स्वयं उसके प्रदेश का मुखिया रात्रिभोज के लिए उपस्थित था।

दलित अपने परिवार के साथ सबकी आवभगत में लग गया और महिलाएं रसोई में सबके लिए भोजन की व्यवस्था करने में लग गयीं। तभी एक महिला मंत्री ने रसोईघर की चौखट पर कदम रखा; तो सभी कैमरों की रौशनी उनकी तरफ घूम जाती है और रसोईघर जगमगा उठा। दरअसल महिला मंत्री खाना बना रही महिलाओं की मदद के लिए रसोई में गयी थीं। हालाँकि यह सब पूर्व नियोजित था। जिस दलित के घर पर नेताओं के रात्रिभोज की व्यवस्था थी ; उसकी पहले ही घोषणा हो चुकी थी। इस पूरे सुनियोजित कार्यक्रम के दौरान राजनीतिक भविष्य के लिए अहम मौकों की तस्वीर ले ली गयीं। और ऐसा हो भी क्यों न ! आखिर ये आगामी चुनाव के लिए वोट बैंक को रिझाने की कोशिश जो थी। 

दलित शब्द का जिक्र होते ही शोषित , पीड़ित , उदास चेहरा आँखों के सामने घूम जाता है। अब तो दलित शब्द पूर्ण रूप से एक जाती विशेष को बोला जाने लगा है। पिछले 6-7 दशकों में दलित शब्द अनुसूचित जाति के लोगों के लिए ही प्रयोग हो रहा है। अब तो यह एक बड़ा वोट बैंक भी बन गया है। चुनाव करीब आते ही लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां दलितों की आंच पर अपनी रोटियां सेंकने लग जाती हैं। 

भारत में 2019 के लोकसभा चुनाव की घंटी बज चुकी है और लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां अपनी – अपनी कमर कसकर इस महासमर में एक बार फिर उतरने की तयारी में हैं। खुद को मजबूत बनाने के लिए इस बार ‘ दलित समीकरण ‘ पर चुनावी गणित का दांव खेला जा रहा है और लगभग हर नेता और राजनीतिक दल दलित प्रेम में बावला हुआ जा रहा है,  संघ भी दलितों के पक्ष में खड़ा हुआ नजर आ रहा है । जब – जब चुनावी मौसम ने दस्तक दी ; कोई न कोई नेता एक टूटी – फूटी झोपडी में जमीन पर बैठकर खाना खाते देखा जा सकता है। 

हम जानते है कि इस देश पर 60 साल तक काँग्रेस के शासन का राज उसके मुस्लिम और दलित वोट बैंक में छुपा हुआ है । वो आज सत्ता से बाहर इसलिये ही है क्योंकि उसका ये वोट बैंक उसके हाथ से फिसल चुका है । राहुल गांधी दलितों के घर भोजन करने वाली सबसे चर्चित हस्ती रहे हैं। दलित देश की राजनीति में 22 प्रतिशत से ज्यादा वोट की शक्ति रखते हैं और इनका समर्थन किसी को भी सत्ता तक पहुँचा सकता है और किसी को भी सत्ता से दूर कर सकता है । 2014 लोकसभा के चुनावों में भाजपा की सफलता में दलितों का बहुत बड़ा हाथ था। यही कारण है कि दलितों को भाजपा से दूर करने के लिये विपक्षी दलों में दलित प्रेम की बयार बह रही है और दलितों को दूर जाने से बचाने के लिये भाजपा दलित प्रेम में बावली हो रही है ।

वैसे आरएसएस में भी दलितों के साथ भोजन की परम्परा रही है। एक बड़ा राजनैतिक दांव खेलते हुए बीजेपी ने अपने मंत्रियों और सीनियर पार्टी पदाधिकारियों से कहा कि वे जिस भी राज्य में जाएं, वहां दलितों के साथ बातचीत करें और उनके घर भोजन करें। खुद यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी ऐसा ही किया था । लेकिन इस बीच एक विवाद सामने आ गया। योगी सरकार में राज्य मंत्री सुरेश राणा जब अलीगढ़ में एक दलित के घर खाना खाने पहुंचे तो लाव-लश्कर के साथ होटल से मंगाया हुआ खाना खाया। दलितों के साथ जुड़ा रहने की छवि बनाने में जुटी यूपी सरकार के लिए ये दांव उल्टा पड़ गया और बीजेपी की जमकर किरकिरी हो गई। इतना ही नहीं तेलंगाना में भी ये दलित सियासत तब गरमा गयी ; जब बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पर भी दलित के घर होटल का खाना खाने के आरोप लगे। 

इस सबके बीच अब बात करते हैं उस बिंदु की ; जो मीडिया में बहस का मुद्दा बन गया। मीडिया में अमित शाह और राहुल गाँधी की दो फोटो को प्रकाशित करके दोनों में अंतर ढूंढने वाली प्रतियोगिता की भांति “दलित के घर कौन ज्यादा अच्छा भोजन करता है – अमित शाह या राहुल गांधी” नामक विषय उछाल दिया गया। फिर क्या था ; पार्टी प्रेमी अपनी – अपनी विशेषताएं गिनाने लगे कि –  

1.अमित शाह के सामने बाल्टी और दो बड़े-बड़े डोंगे रखे हुए हैं, जबकि राहुल गांधी के सामने सिर्फ़ एक छोटी थाली रखी है। 

Related News
1 of 11

2. शाह जी के लिये दूसरी थाली में आठ-दस रोटियाँ एक्स्ट्रा रखी हुई हैं, जबकि राहुल जी के लिये सिर्फ़ दो पूड़ियाँ और हैं। 

3. अमित शाह को भोजन परोसने वाली महिला किसी को आवाज़ देकर और खाना मंगा रही है, जबकि राहुल अपने सामने वाले भोजन को देखकर ही सहमे हुए हैं।

इन तीनों बातों से दोनों नेताओं की खुराक का अंतर पता चलता है।

4. राहुल पूड़ी-सब्ज़ी लेना पसंद करते हैं, जबकि अमित शाह को चपाती और खीरे का रायता भाता है। इससे हमें कुछ पता नहीं चलता। 

5. अमित शाह नंगे पैर हैं, जबकि राहुल गांधी ने ज़ुराब पहनी हुई हैं। इसका मतलब- राहुल जी के पैर ज़मीन पर पड़ने से मैले हो जाते हैं। 

6. दोनों के माथे पर टीका लगा हुआ, यानि दोनों दलित के घर पहुंचने से पहले पूजा करके निकलते हैं। 

7. अमित शाह के पीछे सीमेंट की दीवार है, जबकि राहुल गांधी के नीचे और पीछे गोबर पुता हुआ है। इससे राहुल बाबा के ‘बुरे दिनों’ का और शाह जी के ‘अच्छे दिनों’ का पता चलता है।

हालांकि, इन बिन्दुओं के आधार पर राजनीति विशेषज्ञों का कहना है कि किसी नतीज़े पर पहुंचना अभी जल्दबाज़ी होगी क्योंकि शाह की ये ‘डेब्यू इनिंग’ है, जबकि राहुल कई सालों से इसी सर्फेस पे बैटिंग करते आ रहे हैं। 

अब सवाल उठता है कि क्या वास्तव में सबको दलित प्रेम ने जकड़ा हुआ है अथवा ये सभी दलित प्रेम के नाम पर दिखावा कर रहे हैं और अगर ये सब दिखावा या दलितों को रिझाने की कोशिश नहीं है तो क्यों ये नेतागण सिर्फ दलितों का ही घर रात्रिभोज के लिए चुनते हैं ? मेरा मानना यही है कि दलित प्रेम कहीं नहीं है, यहाँ तक की दलितों के नाम पर राजनीति करने वाली बहुजन समाज पार्टी भी दलित प्रेम की जगह सत्ता प्रेम में ही डूबी नजर आती है । दलित मुद्दे उठाने से कोई दलित प्रेमी सिद्ध नही हो सकता ।

ये दलित समाज के लिये विचार का विषय है कि अगर इन सब लोगों को दलितों से इतना प्यार था तो दलितों के इतने बुरे हालात क्यों हैं ?  मायावती और अन्य राजनीतिक दलों में मौजूद दलित नेताओं को आज भी दलित कल्याण केवल आरक्षण में ही क्यों नजर आता है ? आजादी के 71 सालों बाद भी दलित आरक्षण के मोहताज क्यों है? जब दलितों की स्थिति सुधारने की बात करने वाले लोग दलित घरों की बेटियों को अपनी बहू बनाकर पूरे सम्मान के साथ अपने घर लाएंगे ; शायद तभी दलितजनों की उभरती हुयी तस्वीर सामने आएगी।

 

Get real time updates directly on you device, subscribe now.

Comments
Loading...