फर्रुखाबाद में 250 कुम्हारों के घर दीवाली से पहले छाई मायूसी !
फर्रूखाबाद– दीपावली का सब को इंतजार रहता है। घर में मां लक्ष्मी की पूजा से सुख समृद्धि आती है।जगमग बिजली की रोशनी में दीयों की टिमटिमाहट के लिए अब जगह कहाँ है। लेकिन इसी कारण दीपावली शब्द ही जिस दीप से बना है, उसका अस्तित्व आज ख़तरे में है।
जैसे-जैसे ज़माने का चलन बदल रहा है, मिट्टी के दीए की कहानी ख़त्म होती जा रही है। पुश्तों से यही काम करने वाले फर्रुखाबाद के 250 कुम्हार परिवार दीवाली से पहले उदास और मायूस हैं। दीपों को तैयार करने वाली मिट्टी फर्रुखाबाद में आसानी से नहीं मिल पा रही है और उसे आसपास के जिलों से मंगवाना पड़ रहा है। मिट्टी के दाम बीते साल के मुकाबले दोगुने हो गए हैं। कुम्हारो को दीये को तैयार करने लायक मिट्टी नहीं मिल पा रही है। एक ट्रैक्टर ट्राली मिट्टी बारह सौ से पंद्रह सौ रुपये के बीच आती थी। जो इस साल करीब ढाई से तीन हजार रुपये में मिल पा रही है।
अब से ढाई दशक पहले दीपावली के त्योहार पर लोग मिट्टी के दीये से घर को रोशन करते थे लेकिन धीरे-धीरे इनका स्थान अब बिजली की झालरों और रंगबिरंगी मोमबत्तियों ने ले लिया है। जिसके चलते मिट्टी के दीये सगुन बनकर रह गये हैं। लोग पूजा पाठ में ही इनका प्रयोग करते हैं। मिट्टी के दीयों की मांग कम होने का प्रभाव इनको बनाने वालों पर भी पड़ा है। उनकी न सिर्फ आमदनी कम हुई है बल्कि आहिस्ता-आहिस्ता रोजी रोटी पर संकट भी मंडराने लगा है।
चाइना की झालरों ने उनकी उम्मीद की किरण को अँधेरे में धकेल दिया है। पहले लोग हर शुभ कार्य में मिट्टी के बर्तनों का ही प्रयोग करते थे। खासतौर पर दीपावली के त्योहार पर मिट्टी के दीयों से ही घर को रोशन करते थे। दीपावली का त्योहार आने के दो महीना पहले से ही मिट्टी के बर्तन बनाने वाले दीया बनाने में जुट जाते थे ताकि समय से वह बिक्री कर सकें। वक्त बदलने के साथ ही दीयों का क्रेज कम होने लगा। लोगों के आकर्षण का केंद्र बिजली की रंगबिरंगी झालरें और मोमबत्तियां बन गईं। त्योहार पर अब लोग सगुन के तौर पर दीया लेते हैं।
दीयों की मांग कम होने से मिट्टी के बर्तन बनाने वालों को खासा नुकसान हुआ है। आहिस्ता-आहिस्ता इनकी रोजी रोटी पर संकट मंडराने लगा है। रेलवे रोड रहने वाले रामसिंह ने बताया कि बचपन में जब भी दीपावली का त्योहार आता था तो गांव में बर्तन बनाने वाले के यहां से सबसे पहले मिट्टी के दीये मंगाये जाते थे। उनको पानी में डाल दिया जाता था ताकि तेल कम लगे। मिट्टी के दीपक वास्तव में बहुत अच्छे लगते थे। अब तो सिर्फ कहने भर को रह गया है।
(रिपोर्ट-दिलीप कटियार, फर्रूखाबाद)